“देवोत्थानी एकादशी” पर विशेष

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: अपर्णा मिश्रा
सीतापुर उत्तर प्रदेश

                     *सनातन धर्म की प्रत्येक मान्यताओं के तरह चातुर्मास्य व्रत का बहुत बड़ा महत्व है | भगवान सूर्य के मिथुन राशि में आने पर चातुर्मास्य प्रारंभ होता है | यह आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को होता है | जिसे हरिशयना एकादशी के नाम से जाना जाता है | आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन सृष्टि के पालन कर्ता भगवान श्री हरि विष्णु चार महीने के लिए निद्रा के अधीन हो जाते हैं | इन चार महीनों में सनातन धर्मावलंबियों के द्वारा चातुर्मास्य व्रत का विधान किया जाता है | जो भी पौराणिक विधि से चातुर्मास्य अर्थात चार महीने का व्रत कर लेता है वह योगाभ्यासी ब्रह्म पद को प्राप्त करता है | पुराणों में मिली कथा के अनुसार योग निद्रा ने भगवान से प्रार्थना किया कि आपके सारे शरीर में सब का वास है ! तो हे भगवन हमें आप स्थान कहां देंगे ?? योग निद्रा की बात को सुनकर के भगवान ने उनको अपने नेत्रों में स्थान दिया और उनसे कहा कि तुम आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक मेरे आश्रित रहोगी | उस समय में क्षीरसागर में शयन करूंगा | इस बीच में सारे शुभ कार्य जैसे :- विवाह , यज्ञोपवीत दीक्षा ग्रहण , यज्ञ , गृह प्रवेश , गोदान , प्रतिष्ठा एवं अन्य शुभ कार्य वर्जित कर दिए जाएंगे | भगवान के इस वचनानुसार चातुर्मास्य में सारे शुभ कार्य बंद रहते हैं | आज कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थानी या हरि प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है | आज के ही दिन भगवान श्री हरि विष्णु निद्रा को त्याग करके सृष्टि के पालनकर्ता के पद पर पुन: आरूढ हो जाते हैं , और सारे शुभ कार्य प्रारंभ कर दिए जाते हैं |* 

आज देवोत्थानी एकादशी के दिन भगवान श्री हरि के मंदिर में सभी भक्तों को रहना चाहिए | ऐसी मान्यता है की देव देवेश के उठने पर उनकी दृष्टि जिसके ऊपर पड़ जाती है उसे मोक्ष मिल जाता है | ऐसी मान्यता है कि देवोत्थानी एकादशी के दिन जो व्यक्ति भगवान को जो अर्पण करता है उसे स्वर्ग में उन्हीं वस्तुओं का उपयोग करने के लिए मिलता है | आज जिस प्रकार मनुष्य अपने धर्म – कर्म से विमुख हो रहा है उसका परिणाम भी समाज में परिलक्षित हो रहा है | चातुर्मास्य में वर्जित शुभ कार्य आज वर्जित नहीं रह गये हैं | क्योंकि मनुष्य अपने सारे कार्य मनमाने ढंग से संपन्न करने मे सिद्धहस्त हो रहा है | अनेक गृह प्रतिष्ठा, गृहारंभ, यहां तक की विवाह संस्कार भी चातुर्मास्य में संपन्न होते देखे जा सकते हैं | यही कारण है कि आज गृहस्थ आश्रम में तरह-तरह की विपन्नतायें एवं अराजकता फैली हुई है | आचार्य के कहने का मंतव्य यही है कि मनुष्य को विचार करना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाए हैं उनका कुछ कारण रहा होगा | परंतु आज का पढ़ा-लिखा समाज इतनी प्रगति कर चुका है कि वह अपने पूर्वजों को नहीं मानना चाहता है तो पूर्वजों की बनायी हुई मान्यताएं या उनके बताए गए मार्गों पर चलना ही उसे मूर्खता और ढकोंसला लगने लगा है | अपने पूर्वजों की दिखाई राह पर ना चल कर के एवम पूर्वजों का अपमान करके मनुष्य सुखी तो नहीं परंतु खोखली हंसी अवश्य हंस रहा है | जिसका कोई अर्थ नहीं है |

सनातन धर्म की मान्यताएं बहुत ही दिव्य रही हैं परंतु आज अनेकों सनातन धर्मी स्वयं को सनातन का पुरोधा तो बताते हैं परंतु उनके नियमों को मानने से परहेज कर रहे हैं | यही कारण है कि आज हम तेज हीन होते जा रहे हैं |

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